Supreme Court: का संवैधानिक फैसला: गवर्नर-राष्ट्रपति के लिए बिलों पर स्वीकृति की टाइमलाइन तय नहीं हो सकती, “मानी हुई स्वीकृति” (deemed assent) की अवधारणा खारिज

सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति द्वारा भेजे गए संवैधानिक रेफरेंस (अनुच्छेद 143 के तहत) पर बड़ा और निर्णायक फैसला सुनाया है। कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि गवर्नर या राष्ट्रपति को विधानसभा द्वारा पास किए गए बिलों को स्वीकृति (assent) देने के लिए किसी निर्धारित समय सीमा (timeline) को अदालत यह निर्धारित नहीं कर सकती। साथ ही, “deemed assent” — यानी यह मान लेना कि बिल स्वचालित रूप से स्वीकृत हो गया है — की अवधारणा संवैधानु विधान और शक्तियों के पृथक्करण की भावना के विरुद्ध है। 




फैसले की पृष्ठभूमि क्या है?

  • यह मामला एक प्रेसिडेंशियल रेफरेंस के रूप में सुप्रीम कोर्ट में आया था, जिसे राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने अनुच्छेद 143(1) के तहत दायर किया था।  
  • इस रेफरेंस में कुल 14 संवैधानिक प्रश्न थे, जिनमें मुख्य था: क्या अदालत गवर्नरों और राष्ट्रपति को बिलों पर स्वीकृति देने के लिए समय-सीमा थोप सकती है?  
  • इससे पहले, सुप्रीम कोर्ट की दो-जजों की बेंच ने तमिलनाडु मामले में तय किया था कि गवर्नर और राष्ट्रपति को बिलों पर कार्रवाई करने के लिए समय सीमा होनी चाहिए।  
  • लेकिन राष्ट्रपति ने इस फैसले को चुनौती दी और यह सवाल उठाया कि क्या इस तरह की टाइमलाइन न्यायशास्त्र द्वारा थोपी जा सकती है।  




सुप्रीम कोर्ट का तर्क और मुख्य निष्कर्ष


  1. संवैधानु लचीलापन (Elasticity)
    सुप्रीम कोर्ट की पाँच-जज की संविधान पीठ ने कहा है कि संविधान में अनुच्छेद 200 (गवर्नर) और अनुच्छेद 201 (राष्ट्रपति) को इस तरह से रचा गया है कि उन्हें निर्णय लेने में संवैधानु लचीलापन मिलता है। समय-सीमा तय करना इस लचीलापन के मूल भाव के विरुद्ध है।  
  2. “मानी हुई स्वीकृति (Deemed Assent)” नहीं होगी स्वीकार
    अदालत ने यह भी कहा कि कोर्ट के माध्यम से “deemed assent” घोषित करना, राज्यपाल या राष्ट्रपति की संवैधान पद को उनकी शक्तियों से वंचित करना होगा। यह विधिक व्यवस्था में अन्य अंगों की संवैधान भूमिकाओं का हनन है और शक्तियों के पृथक्करण (separation of powers) के सिद्धांत को कमजोर करता है।  
  3. न्यायिक समीक्षा की सीमाएँ
    अदालत ने स्पष्ट किया कि यदि बहुत लंबे समय तक गवर्नर द्वारा बिल पर “अनुत्तरदायी देरी” हो, तो कोर्ट सीमित शक्ति (limited power) के साथ न्यायिक समीक्षा कर सकती है — लेकिन वह बिल के फायदे या उसके मापदंडों पर टिप्पणी नहीं करेगी।  
  4. गवर्नर की विकल्प सीमित
    गवर्नर के पास स्वीकृति देने, बिल को विधानसभा को वापस करने (reconsideration के लिए) या राष्ट्रपति को भेजने का विकल्प है। लेकिन “स्वीकृति न देने और विदेश न लौटाने” की अनिश्चित कार्रवाई उसे संवैधान भूमिका से हटा देगी।  
  5. संवाद और सहयोग की आवश्यकता
    सुप्रीम कोर्ट ने यह सुझाव दिया है कि गवर्नर और विधानमंडल के बीच संवाद की प्रक्रिया होनी चाहिए, न कि एक बाधा-रूप में टकराव। इससे लोकतांत्रिक प्रक्रिया स्थिर बनी रहे।  



संवैधानिक और राजनीतिक मायने


  • यह फैसला केंद्र और राज्यों के बीच संवैधान बल के विभाजन को फिर से पुष्टि करता है — गवर्नर को अदालत द्वारा “निर्धारित टाइमलाइन” पर बांधना, संवैधानु पद की स्वायत्तता को कमजोर कर सकता था।
  • अदालत का यह रुख यह स्पष्ट करता है कि वह संवैधान निर्धारण में न्याय और व्यावहारिकता दोनों को महत्व देती है — सिर्फ निष्पक्षता ही नहीं, पर जिम्मेदारी और संतुलन भी।
  • इसी तरह, यह फैसला राज्यों को यह संदेश देता है कि उनकी विधानमंडलीय प्रक्रियाओं में निष्क्रियता पर गवर्नर की जिम्मेदारी होती है, लेकिन यह जिम्मेदारी “नियंत्रण पैसा” नहीं है।
  • इसके अलावा, यह एक बड़े संवैधानु सिद्धांत — “शक्तियों का पृथक्करण” — को मजबूत करता है; जिससे यह सुनिश्चित होता है कि न्यायालय संवैधानु कार्यों का स्थान नहीं लेता, बल्कि सीमित हस्तक्षेप ही करे।



भविष्य की चुनौतियाँ और संभावनाएँ


  1. राज्य-गवर्नर संबंधों में नई उम्मीदें
    गवर्नरों और राज्यों के बीच टकराव की बजाय संवाद की प्रक्रिया को बढ़ावा देने का यह फैसला नए शासन-मॉडल की ओर संकेत करता है, जहाँ शक्ति का संतुलन किया जाएगा।
  2. न्यायिक भूमिका की सीमाएं
    अदालत ने यह स्पष्ट किया है कि वह संवैधानु पदों की विवेकाधीन शक्तियों को पूरी तरह नियंत्रित नहीं कर सकती — यह भविष्य में संवैधानु संस्थाओं की भूमिका और सीमाओं को फिर से परिभाषित करेगा।
  3. राजनीतिक स्थिरता और विधायी प्रक्रिया
    यह निर्णय राज्यों में विधायी प्रक्रिया को तेज़ी से आगे बढ़ाने में मदद कर सकता है, क्योंकि अनिश्चितता की संभावना कम होगी और राज्यपालों पर “अनुचित देरी” की अधिक जवाबदेही होगी।
  4. संवैधानु शिक्षा और जागरूकता
    आम नागरिकों, विधायकों और शासन के अन्य अंगों को यह समझने की ज़रूरत है कि यह फैसला सिर्फ कानूनी व्याख्या नहीं है, बल्कि संवैधानु सिद्धांतों पर आधारित है। इससे लोकतांत्रिक प्रक्रिया में उनकी भागीदारी और जवाबदेही बढ़ सकती है।


निष्कर्ष


सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला संवैधान प्रक्रिया, राज्य-कार्यक्षमता और न्यायशक्ति के बीच संतुलन बनाए रखने की एक बड़ी और संवेदनशील कोशिश है। यह स्पष्ट करता है कि गवर्नर और राष्ट्रपति सिर्फ प्रशासक नहीं, बल्कि संवैधानु जिम्मेदारियाँ निभाने वाले संस्थागत अंग हैं, जिन्हें उनकी शक्तियों का विवेकपूर्ण उपयोग करने की आज़ादी होनी चाहिए — लेकिन अनिश्चितता और विलंब को न्यायालय भी नज़रअंदाज नहीं कर सकती।


इस फैसले से संविधान की “लचीलापन” की स्थिरता, विधायिका की आज़ादी और न्यायिक मर्यादा — इन तीनों का संतुलन दिखता है। यह निर्णय भविष्य में राज्यों और केन्द्र के बीच संवैधानु संवाद को महत्वपूर्ण दिशा देगा और यह सुनिश्चित करेगा कि विधायी प्रक्रिया सिर्फ शक्ति संघर्ष न बने, बल्कि लोकतांत्रिक उत्तरदायित्व की मिसाल बने।